साथ चल रहे थे एक राह पर,
तुम चले गए यूँ मूँह मोड़ कर,
सोचा नहीं, क्या बीतेगी मुझ पर,
निकल लिए यूँ अकेला छोड़ कर ।
माना जाने की ज़िद थी बहुत,
थोड़ी दूर और सही, साथ चले आते,
कुछ मैं कहता, कुछ तुम कहते,
चलते चलते दूर कहीं निकल जाते ।
बातों बातों में शायद पता चलता,
हँस के भी, क्यूँ तुम इतने उदास थे,
समझ ना सके तुम्हारी व्यथा,
शायद हम इतने ना पास थे ।
देखो, जो तुम चले गए, सब कुछ कितना वीरान पड़ा,
भीड़ है, मेले हैं, पर लगता सब सुनसान बड़ा ।
शून्य सा है जीवन, सब कुछ कितना ठहरा सा है
न जाने कब भरेगा, ये घाव इतना गहरा सा है ।